अंगरेज़ भारत को कुटिल प्रशासनिक व्यवस्थाएं दे गया है. उनमें अदालती न्यायदान पद्धति का मिथक भी शामिल है. शारीरिक क्षतियों की सूची में सबसे जघन्य और घृणित कृत्य हत्या है. सांघातिक चोट, बलात्कार, अपहरण और सायास धमकियां उसी अपराध-कुटुंब की हिंसाएं हैं. ‘कानून का राज्य’ का जुमला दुनिया के लोकतंत्रों में जनता की जुबान पर चस्पा कर दिया गया है. उसके नैतिक अर्थ से कानून का कोई लेना देना नहीं होता. न्याय होता हुआ दीखता तो है, लेकिन होता नहीं है. गरीब, अशिक्षित और दुर्घटनावश बने अपराधियों को कानून और न्यायालय डींगें मारते सजाएं भी देते हैं. अपवादों को छोड़कर सजायाफ्ता और उसके सामाजिक स्तर में उलट अनुपात का रिश्ता होता है. अमीर, असरदार, नौकरशाह, राजनेता, उद्योगपति, सुपारी वाले सीरियल किलर, पुलिस बल वगैरह अभियुक्त होने पर भी समाज में उन्मुक्त होते हैं. मामलों में बरी हो जाना पहले से तय लगता है.