अंगरेज़ भारत को कुटिल प्रशासनिक व्यवस्थाएं दे गया है. उनमें अदालती न्यायदान पद्धति का मिथक भी शामिल है. शारीरिक क्षतियों की सूची में सबसे जघन्य और घृणित कृत्य हत्या है. सांघातिक चोट, बलात्कार, अपहरण और सायास धमकियां उसी अपराध-कुटुंब की हिंसाएं हैं. ‘कानून का राज्य’ का जुमला दुनिया के लोकतंत्रों में जनता की जुबान पर चस्पा कर दिया गया है. उसके नैतिक अर्थ से कानून का कोई लेना देना नहीं होता. न्याय होता हुआ दीखता तो है, लेकिन होता नहीं है. गरीब, अशिक्षित और दुर्घटनावश बने अपराधियों को कानून और न्यायालय डींगें मारते सजाएं भी देते हैं. अपवादों को छोड़कर सजायाफ्ता और उसके सामाजिक स्तर में उलट अनुपात का रिश्ता होता है. अमीर, असरदार, नौकरशाह, राजनेता, उद्योगपति, सुपारी वाले सीरियल किलर, पुलिस बल वगैरह अभियुक्त होने पर भी समाज में उन्मुक्त होते हैं. मामलों में बरी हो जाना पहले से तय लगता है.
सांप्रदायिक और अन्य दंगे लोकतंत्र के उजले चेहरे पर चेचक के बदनुमा दाग हैं. स्वाधीन देश में हज़ारों की संख्या में सांप्रदायिक दंगे हुए. अब भी हो रहे हैं. अंगरेज़ ने ताजीरात-ए-हिन्द, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम का त्रिभुज लॉर्डस् की इबारत में इंग्लैंड के हाउस ऑफ कॉमन्स में बैठकर खींचा था. फौजदारी अदालती व्यवस्था इसी त्रिभुज में फंसी न्याय देने की कोशिश, जुगत या गलतफहमी में व्यस्त है.
दिल्ली में सिखों का कत्लेआम (1984), मुंबई (1992), कंधमाल (2008) और गुजरात (2002) सहित मुजफ्फरनगर (2014) के सांप्रदायिक दंगों में वास्तविक अभियुक्तों को कभी सजा नहीं मिलेगी. फिर भी राजनेता, जनता और मीडिया की यह खुशफहमी लगातार उम्मीदज़दा है कि न्याय व्यवस्था में गहरा विश्वास रखना चाहिए था कि अदालतें ‘देर आयद, दुरुस्त आयद‘ के मुहावरे के अनुरूप कभी न कभी न्याय तो ज़रूर करेंगी!‘ गुजरात दंगों को लेकर पूर्व मंत्री माया कोडनानी तथा बाबू बजरंगी और बिलकीस बानो बालात्कार कांड के अपराधियों को सजाएं मिली भी हैं. ये सजाएं अपवाद हैं जो नियम को ही सिद्ध करती हैं.
सांप्रदायिक दंगे यदि दो शत्रु-समूह करें. एक दूसरे के विरुद्ध दंड प्रक्रिया संहिता के तहत प्रथम सूचना पत्र दर्ज़ करें. तब जांच प्रक्रिया का न्याय के अंतिम पड़ाव तक पहुंचने की मृगतृष्णा का पाथेय झिलमिलाने तो लगता है. जब राज्य ही सांप्रदायिक हिंसा का कारक अथवा संरक्षक हो तो पुलिस थानों में रिपोर्ट तक दर्ज़ नहीं हो पाती. पुलिस ही अपने आकाओं का हुक्म बजाते नागरिकों को जानवरों की तरह काटने लगे. स्त्रियों का शीलहरण करे. गरीबों तक की संपत्तियां छीन ले. माहौल में अश्लीलता, असभ्यता और बदतमीज़ी का तांडव भर दे. तब कानूनी प्रक्रिया की रस्मअदायगी भी भीगी बिल्ली की तरह दुम दबाने लगती है. गुजरात, दिल्ली, ओडिसा, मुंबई, मेरठ, मुजफ्फरनगर सहित पूरे देश में यही तो होता रहा है.
कुछ बुद्धिजीवियों, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, प्रबुद्ध वकीलों और मीडिया के ईमानदार पत्रकारों के नैतिक दबाव तथा हठवादी जागरूकता के चलते इने गिने मुकदमों में वास्तविक न्याय मिलने की धूमिल संभावनाओं का उजला चेहरा दिखता है. लेकिन राज्य-प्रायोजित हिंसा के मुकदमों में वही ढाक के तीन पात हैं.
गुजरात दंगों को लेकर पीड़ित ज़किया ज़ाफरी की एक विविध याचिका को अहमदाबाद के मेट्रोपोलिटन न्यायालय ने यह कहते हुए रद्द कर दिया कि दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) ने ठीक कहा था कि उसे अपराध सिद्ध करने योग्य साक्ष्य मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और अन्य 59 के विरुद्ध नहीं मिला. इसलिए मोदी और अन्य संदेहियों को अपराध से पृथक कर दिया गया. सबसे निचली अदालत द्वारा लाचार एस0आई0टी0 के आवेदन पर आदेश के आत्मप्रचारित राजनीतिक गुणनफल निकाले गए. कहा गया न्याय की जीत हुई है. एसआईटी प्रमुख तथा सीबीआई के पूर्व निदेशक आर. के. राघवन का आत्मविश्वास बोला कि जांच रिपोर्ट को वैधानिक मान्यता मिल गई है. प्रचारित हुआ कि अपनी आंखों पर पट्टी बांधे न्याय व्यवस्था ने खुली आंखों से वास्तविक न्याय कर दिया है. घृणित अपराधों का सच लाशों के मलबे के नीचे टीसता रहेगा. प्रचार का इतना तेज शोर है कि सत्य की कराह को सुनने का व्यवस्था के पास वक्त, नीयत और समझ तक नहीं है.
राज्य प्रायोजित हिंसा की रपट पुलिस थानों में पीड़ित व्यक्ति दर्ज़ कराने की हिम्मत नहीं रखता. जाता है तो जान माल की धमकी मिलती है जो क्रियान्वित की जा सकती है. स्वयंसेवी संस्थाओं, समाज, सुप्रीम कोर्ट और मीडिया वगैरह के साहसिक दबाव के चलते प्राथमिकी दर्ज़ भी कर ली गई, तब भी जांच तो थाने के अधिकारियों को ही करनी होती है. वे ही तो अभियुक्तों का आचरण करते पीड़ितों द्वारा देखे गए हैं.
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत लिए गए गवाहों के बयान न्यायालय में सरेआम झुठलाए जा सकते हैं. उन पर कोई मुकदमा भी नहीं चल सकता. अंगरेज़ ने यह जुमला जनता को झांसा देकर रचा था कि पुलिस किसी शरीफ व्यक्ति को झूठे मुकदमे में फंसाकर नकली गवाहियां टीप सकती है. ऐसे गवाह अदालत में निर्भय होकर बयान को खंडित कर सच बोल सकते हैं. हो लेकिन यह रहा है कि लोकतंत्र में रसूखदार उद्योगपति, फिरौतीकारक, राजनेता, नौकरशाह और खुद पुलिस अधिकारी भी अभियुक्त होते गए हैं. उनके खिलाफ सच्चे या झूठे दर्ज़ किए गए बयान न्यायालयीन कथन के स्तर पर सच की देह से आत्मा निकाल लेते हैं.
अभियुक्त मूछें ऐंठते अदालत से निकलते हैं. शिकायतकुनिंदा शर्मसार होकर चूहों की तरह घर के बिल में कुंठित होकर दुबक जाते हैं. गवाह दलाली का कमीशन खाते सियासत चलाते हैं. मीडिया का बहुलांश अभियुक्तों का गुणगान करने के रोमांच से लबरेज़ होता रहता है.
विचारण न्यायालय अभियुक्त का स्वर्ग और पीड़ित का नर्क बनाए जा रहे हैं. घटना के दस बारह वर्ष बाद महंगी फीस लेकर वाक्कला में टर्राने वाले वकील निरक्षर, अल्पशिक्षित और औसत बुद्धि के कानूनी जुमलों से भी बेखबर नागरिकों से आत्ममुग्ध शैली में साक्ष्य अधिनियम की सर्वोच्च उपपत्तियों का ठीकरा जिरह में उन पर फोड़ते हैं. वे लगातार अभियुक्त की आंखों में पारस्परिक प्रशंसा और मोटी फीस के अहसान के कृतज्ञ भाव से सराबोर होकर देखते रहते हैं. न्यायालय थानेदार द्वारा संदेहजनक परिस्थितियों में लिखी गई इबारतों में एक एक शब्द में विसंगति ढूंढ़ते हैं. फिर दंड दे सकने के न्यायपथ के आसपास उग आई चोर पगडंडियों में भटक जाने को अभिशप्त होते हैं.
विचारण न्यायालयों की सांख्यिकी पर शोध किया जाए तो लगभग नब्बे प्रतिशत मुकदमों में या तो चश्मदीद गवाह को खरीदा जाकर उसे अभियोजन द्वारा पक्षविरोधी घोषित किया जाता है, अथवा अभियुक्त या बचाव पक्ष के अधिवक्ता को गैरहाजिर रखा जाकर विचारण को दशकों की यात्रा करनी होती है अथवा गैरजमानती और समझौते के नाकाबिल मामलों में भी भरी अदालत में समझौते की तज़वीज़ की जाती है जिससे समझौतानामा की संभावित प्राप्य राशि को लेकर बंदरबांट की जा सके. कुछ प्रकरणों में तो न्यायाधीश को ही खरीद लेने की संभावनाएं साकार कर ली जाती हैं. अभियुक्तों की इन परिस्थितियों में की गई उन्मुक्ति के न्यायालयीन उद्घोष को दागी राजनेताओं के लोकचरित्र का प्रमाणपत्र बनाकर उन्हें मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद तक का नैतिक दावेदार अनुकूल समूहों द्वारा बना दिया जाता है.
राजनेताओं के मुखौटे फरमाते हैं ‘कानून अंधा होता है.' ‘कानून के अनुसार न्याय होना है.' ‘कानून का काम है कि अपनी राह चले.' ‘अमुक मंत्री ने जनदृष्टि अथवा नैतिक दृष्टि के अनुसार भले ही अपराध किया हो, लेकिन कानून की दृष्टि ही सर्वोपरि है.' कानून का नैतिकता, नागरिक समझ और ‘प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता‘ जैसे शब्दार्थों से कोई सरोकार नहीं होता. गुजरात, दिल्ली, मुंबई, कंधमाल और मुजफ्फरनगर वगैरह में हज़ारों निर्दोष नागरिकों के साथ अन्याय हुआ. नकाबपोशों का गिरोह यदि किसी मुख्यमंत्री के बंगले पर डकैती करे. रात के अंधेरे में किसी उद्योगपति की मिल में कोई भीड़ आग लगा दे. अमीर घराने की किसी युवती को मुंह पर कपड़ा बांधे लोग सरेआम अगवा कर लें. तब समझ आएगा कि मुलजिमों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट कैसे दर्ज़ की जा सकती है? ये सवाल अदालतें अस्मत, अस्मिता और संपत्ति लुटा चुकी गरीब जनता से क्यों पूछती हैं? बलात्कारी, डकैत, हत्यारे तस्वीरलगा पहचान पत्र पीड़ित के घर छोड़कर नहीं जाते. पुलिसिया अन्वेषण या तो उन्नीसवीं सदी की लचर अवैज्ञानिक हालत में हो रहा है अथवा वह जानबूझकर आधुनिक प्रविधियों के उपलब्ध होते हुए भी हस्तरेखाओं, आवाजों, कदकाठी, वैमनस्य और बदला लेने के विस्तारित आयामों में जाकर मुलजिम को नहीं पकड़ रहा है.
दांडिक व्यवस्था में अपील और अपीलोत्तर न्यायालयों में चित्रगुप्त की डायरी नहीं लिखी जाती. वे कनिष्ठ न्यायपालिका की डायरी को बांचकर नए अर्थ ढूंढ़ने का जतन ज़रूर कर सकते हैं. गुजरात वही प्रदेश है जहां के मजिस्ट्रेट ने अपराधिक प्रकरण में राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायाधीश को अदालत में हाज़िर होने के लिए समंस जारी कर दिया था. उसे बाद में बर्खास्त कर दिया गया.
हितबद्ध पुलिस अन्वेषण, अभियुक्तोन्मुख कानून और ‘बासी कढ़ी में उबाल' की तरह की न्याय-प्रणाली में फंसकर सांप्रदायिक हिंसा के हज़ारों लाखों शिकार लोगों की आवाज़ों का चीत्कार माहौल में गूंज तो रहा है. अभियुक्तों को ससम्मान बरी करने के आदेशों के कानूनी लेकिन अनैतिक ऐलान को न्याय की सिंफनी बनाया जा रहा है. सबूतों के अभाव में निजी मुलजिम छोड़े जा सकते हैं. लेकिन सरकारी बदइंतज़ामी, नाकामी, निष्क्रियता तथा ढिठाई को नैतिक दृष्टि से मुलजिम क्यों नहीं कहा जाना चाहिए.
अंगरेज़ों की गुलामी से मुक्त होकर भारतीय इतिहास की पहली और इकलौती सामूहिक समझ की किताब अर्थात् संविधान को लिखने का श्रेय देश के प्रत्येक नागरिक अर्थात ‘हम भारत के लोगों' को है. इसकी वाचाल, उद्दंड, अपराधउद्दीपक और बेखबर संतानें उस महान सामूहिक ग्रंथ के रचयिताओं आम आदमी को ही नेस्तनाबूद होते देखने को भी न्याय होता कहती गुलछर्रे उड़ा रही हैं. गुजरात, मुंबई और मुजफ्फरनगर के फौत या पीड़ित रहे हिंदू-मुसलमान और दिल्ली सहित कई इलाकों के सिख भी तो संविधान की शास्त्रीय शब्दावली में उसके निर्माता ‘हम भारत के लोग‘ हैं. कानूनी व्यवस्थाएं और न्याय-पद्धति उनकी देहों के लिए दीमकों की भूमिका में न केवल उग आई हैं, बल्कि उनकी दंशवृत्ति और वंशवृद्धि की लगातार गारंटी की संभावनाएं बनी हुई हैं.
सांप्रदायिक और अन्य दंगे लोकतंत्र के उजले चेहरे पर चेचक के बदनुमा दाग हैं. स्वाधीन देश में हज़ारों की संख्या में सांप्रदायिक दंगे हुए. अब भी हो रहे हैं. अंगरेज़ ने ताजीरात-ए-हिन्द, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम का त्रिभुज लॉर्डस् की इबारत में इंग्लैंड के हाउस ऑफ कॉमन्स में बैठकर खींचा था. फौजदारी अदालती व्यवस्था इसी त्रिभुज में फंसी न्याय देने की कोशिश, जुगत या गलतफहमी में व्यस्त है.
दिल्ली में सिखों का कत्लेआम (1984), मुंबई (1992), कंधमाल (2008) और गुजरात (2002) सहित मुजफ्फरनगर (2014) के सांप्रदायिक दंगों में वास्तविक अभियुक्तों को कभी सजा नहीं मिलेगी. फिर भी राजनेता, जनता और मीडिया की यह खुशफहमी लगातार उम्मीदज़दा है कि न्याय व्यवस्था में गहरा विश्वास रखना चाहिए था कि अदालतें ‘देर आयद, दुरुस्त आयद‘ के मुहावरे के अनुरूप कभी न कभी न्याय तो ज़रूर करेंगी!‘ गुजरात दंगों को लेकर पूर्व मंत्री माया कोडनानी तथा बाबू बजरंगी और बिलकीस बानो बालात्कार कांड के अपराधियों को सजाएं मिली भी हैं. ये सजाएं अपवाद हैं जो नियम को ही सिद्ध करती हैं.
सांप्रदायिक दंगे यदि दो शत्रु-समूह करें. एक दूसरे के विरुद्ध दंड प्रक्रिया संहिता के तहत प्रथम सूचना पत्र दर्ज़ करें. तब जांच प्रक्रिया का न्याय के अंतिम पड़ाव तक पहुंचने की मृगतृष्णा का पाथेय झिलमिलाने तो लगता है. जब राज्य ही सांप्रदायिक हिंसा का कारक अथवा संरक्षक हो तो पुलिस थानों में रिपोर्ट तक दर्ज़ नहीं हो पाती. पुलिस ही अपने आकाओं का हुक्म बजाते नागरिकों को जानवरों की तरह काटने लगे. स्त्रियों का शीलहरण करे. गरीबों तक की संपत्तियां छीन ले. माहौल में अश्लीलता, असभ्यता और बदतमीज़ी का तांडव भर दे. तब कानूनी प्रक्रिया की रस्मअदायगी भी भीगी बिल्ली की तरह दुम दबाने लगती है. गुजरात, दिल्ली, ओडिसा, मुंबई, मेरठ, मुजफ्फरनगर सहित पूरे देश में यही तो होता रहा है.
कुछ बुद्धिजीवियों, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, प्रबुद्ध वकीलों और मीडिया के ईमानदार पत्रकारों के नैतिक दबाव तथा हठवादी जागरूकता के चलते इने गिने मुकदमों में वास्तविक न्याय मिलने की धूमिल संभावनाओं का उजला चेहरा दिखता है. लेकिन राज्य-प्रायोजित हिंसा के मुकदमों में वही ढाक के तीन पात हैं.
गुजरात दंगों को लेकर पीड़ित ज़किया ज़ाफरी की एक विविध याचिका को अहमदाबाद के मेट्रोपोलिटन न्यायालय ने यह कहते हुए रद्द कर दिया कि दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) ने ठीक कहा था कि उसे अपराध सिद्ध करने योग्य साक्ष्य मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और अन्य 59 के विरुद्ध नहीं मिला. इसलिए मोदी और अन्य संदेहियों को अपराध से पृथक कर दिया गया. सबसे निचली अदालत द्वारा लाचार एस0आई0टी0 के आवेदन पर आदेश के आत्मप्रचारित राजनीतिक गुणनफल निकाले गए. कहा गया न्याय की जीत हुई है. एसआईटी प्रमुख तथा सीबीआई के पूर्व निदेशक आर. के. राघवन का आत्मविश्वास बोला कि जांच रिपोर्ट को वैधानिक मान्यता मिल गई है. प्रचारित हुआ कि अपनी आंखों पर पट्टी बांधे न्याय व्यवस्था ने खुली आंखों से वास्तविक न्याय कर दिया है. घृणित अपराधों का सच लाशों के मलबे के नीचे टीसता रहेगा. प्रचार का इतना तेज शोर है कि सत्य की कराह को सुनने का व्यवस्था के पास वक्त, नीयत और समझ तक नहीं है.
राज्य प्रायोजित हिंसा की रपट पुलिस थानों में पीड़ित व्यक्ति दर्ज़ कराने की हिम्मत नहीं रखता. जाता है तो जान माल की धमकी मिलती है जो क्रियान्वित की जा सकती है. स्वयंसेवी संस्थाओं, समाज, सुप्रीम कोर्ट और मीडिया वगैरह के साहसिक दबाव के चलते प्राथमिकी दर्ज़ भी कर ली गई, तब भी जांच तो थाने के अधिकारियों को ही करनी होती है. वे ही तो अभियुक्तों का आचरण करते पीड़ितों द्वारा देखे गए हैं.
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत लिए गए गवाहों के बयान न्यायालय में सरेआम झुठलाए जा सकते हैं. उन पर कोई मुकदमा भी नहीं चल सकता. अंगरेज़ ने यह जुमला जनता को झांसा देकर रचा था कि पुलिस किसी शरीफ व्यक्ति को झूठे मुकदमे में फंसाकर नकली गवाहियां टीप सकती है. ऐसे गवाह अदालत में निर्भय होकर बयान को खंडित कर सच बोल सकते हैं. हो लेकिन यह रहा है कि लोकतंत्र में रसूखदार उद्योगपति, फिरौतीकारक, राजनेता, नौकरशाह और खुद पुलिस अधिकारी भी अभियुक्त होते गए हैं. उनके खिलाफ सच्चे या झूठे दर्ज़ किए गए बयान न्यायालयीन कथन के स्तर पर सच की देह से आत्मा निकाल लेते हैं.
अभियुक्त मूछें ऐंठते अदालत से निकलते हैं. शिकायतकुनिंदा शर्मसार होकर चूहों की तरह घर के बिल में कुंठित होकर दुबक जाते हैं. गवाह दलाली का कमीशन खाते सियासत चलाते हैं. मीडिया का बहुलांश अभियुक्तों का गुणगान करने के रोमांच से लबरेज़ होता रहता है.
विचारण न्यायालय अभियुक्त का स्वर्ग और पीड़ित का नर्क बनाए जा रहे हैं. घटना के दस बारह वर्ष बाद महंगी फीस लेकर वाक्कला में टर्राने वाले वकील निरक्षर, अल्पशिक्षित और औसत बुद्धि के कानूनी जुमलों से भी बेखबर नागरिकों से आत्ममुग्ध शैली में साक्ष्य अधिनियम की सर्वोच्च उपपत्तियों का ठीकरा जिरह में उन पर फोड़ते हैं. वे लगातार अभियुक्त की आंखों में पारस्परिक प्रशंसा और मोटी फीस के अहसान के कृतज्ञ भाव से सराबोर होकर देखते रहते हैं. न्यायालय थानेदार द्वारा संदेहजनक परिस्थितियों में लिखी गई इबारतों में एक एक शब्द में विसंगति ढूंढ़ते हैं. फिर दंड दे सकने के न्यायपथ के आसपास उग आई चोर पगडंडियों में भटक जाने को अभिशप्त होते हैं.
विचारण न्यायालयों की सांख्यिकी पर शोध किया जाए तो लगभग नब्बे प्रतिशत मुकदमों में या तो चश्मदीद गवाह को खरीदा जाकर उसे अभियोजन द्वारा पक्षविरोधी घोषित किया जाता है, अथवा अभियुक्त या बचाव पक्ष के अधिवक्ता को गैरहाजिर रखा जाकर विचारण को दशकों की यात्रा करनी होती है अथवा गैरजमानती और समझौते के नाकाबिल मामलों में भी भरी अदालत में समझौते की तज़वीज़ की जाती है जिससे समझौतानामा की संभावित प्राप्य राशि को लेकर बंदरबांट की जा सके. कुछ प्रकरणों में तो न्यायाधीश को ही खरीद लेने की संभावनाएं साकार कर ली जाती हैं. अभियुक्तों की इन परिस्थितियों में की गई उन्मुक्ति के न्यायालयीन उद्घोष को दागी राजनेताओं के लोकचरित्र का प्रमाणपत्र बनाकर उन्हें मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद तक का नैतिक दावेदार अनुकूल समूहों द्वारा बना दिया जाता है.
राजनेताओं के मुखौटे फरमाते हैं ‘कानून अंधा होता है.' ‘कानून के अनुसार न्याय होना है.' ‘कानून का काम है कि अपनी राह चले.' ‘अमुक मंत्री ने जनदृष्टि अथवा नैतिक दृष्टि के अनुसार भले ही अपराध किया हो, लेकिन कानून की दृष्टि ही सर्वोपरि है.' कानून का नैतिकता, नागरिक समझ और ‘प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता‘ जैसे शब्दार्थों से कोई सरोकार नहीं होता. गुजरात, दिल्ली, मुंबई, कंधमाल और मुजफ्फरनगर वगैरह में हज़ारों निर्दोष नागरिकों के साथ अन्याय हुआ. नकाबपोशों का गिरोह यदि किसी मुख्यमंत्री के बंगले पर डकैती करे. रात के अंधेरे में किसी उद्योगपति की मिल में कोई भीड़ आग लगा दे. अमीर घराने की किसी युवती को मुंह पर कपड़ा बांधे लोग सरेआम अगवा कर लें. तब समझ आएगा कि मुलजिमों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट कैसे दर्ज़ की जा सकती है? ये सवाल अदालतें अस्मत, अस्मिता और संपत्ति लुटा चुकी गरीब जनता से क्यों पूछती हैं? बलात्कारी, डकैत, हत्यारे तस्वीरलगा पहचान पत्र पीड़ित के घर छोड़कर नहीं जाते. पुलिसिया अन्वेषण या तो उन्नीसवीं सदी की लचर अवैज्ञानिक हालत में हो रहा है अथवा वह जानबूझकर आधुनिक प्रविधियों के उपलब्ध होते हुए भी हस्तरेखाओं, आवाजों, कदकाठी, वैमनस्य और बदला लेने के विस्तारित आयामों में जाकर मुलजिम को नहीं पकड़ रहा है.
दांडिक व्यवस्था में अपील और अपीलोत्तर न्यायालयों में चित्रगुप्त की डायरी नहीं लिखी जाती. वे कनिष्ठ न्यायपालिका की डायरी को बांचकर नए अर्थ ढूंढ़ने का जतन ज़रूर कर सकते हैं. गुजरात वही प्रदेश है जहां के मजिस्ट्रेट ने अपराधिक प्रकरण में राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायाधीश को अदालत में हाज़िर होने के लिए समंस जारी कर दिया था. उसे बाद में बर्खास्त कर दिया गया.
हितबद्ध पुलिस अन्वेषण, अभियुक्तोन्मुख कानून और ‘बासी कढ़ी में उबाल' की तरह की न्याय-प्रणाली में फंसकर सांप्रदायिक हिंसा के हज़ारों लाखों शिकार लोगों की आवाज़ों का चीत्कार माहौल में गूंज तो रहा है. अभियुक्तों को ससम्मान बरी करने के आदेशों के कानूनी लेकिन अनैतिक ऐलान को न्याय की सिंफनी बनाया जा रहा है. सबूतों के अभाव में निजी मुलजिम छोड़े जा सकते हैं. लेकिन सरकारी बदइंतज़ामी, नाकामी, निष्क्रियता तथा ढिठाई को नैतिक दृष्टि से मुलजिम क्यों नहीं कहा जाना चाहिए.
अंगरेज़ों की गुलामी से मुक्त होकर भारतीय इतिहास की पहली और इकलौती सामूहिक समझ की किताब अर्थात् संविधान को लिखने का श्रेय देश के प्रत्येक नागरिक अर्थात ‘हम भारत के लोगों' को है. इसकी वाचाल, उद्दंड, अपराधउद्दीपक और बेखबर संतानें उस महान सामूहिक ग्रंथ के रचयिताओं आम आदमी को ही नेस्तनाबूद होते देखने को भी न्याय होता कहती गुलछर्रे उड़ा रही हैं. गुजरात, मुंबई और मुजफ्फरनगर के फौत या पीड़ित रहे हिंदू-मुसलमान और दिल्ली सहित कई इलाकों के सिख भी तो संविधान की शास्त्रीय शब्दावली में उसके निर्माता ‘हम भारत के लोग‘ हैं. कानूनी व्यवस्थाएं और न्याय-पद्धति उनकी देहों के लिए दीमकों की भूमिका में न केवल उग आई हैं, बल्कि उनकी दंशवृत्ति और वंशवृद्धि की लगातार गारंटी की संभावनाएं बनी हुई हैं.
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